Sunday, December 30, 2012

साहित्य बाज़ार तलाशते -तलाशते व्यवहार को ही भूल गया

"साहित्य बाज़ार तलाशते -तलाशते व्यवहार को ही भूल गया ... भूल में इस हद तक बहक गया क़ि आज हमारे पास "कविता" और "साहित्य" की कोई सर्वमान्य परिभाषा ही नहीं है ...इस तरह के बाजारवादी या यों कहें कि बाजारू लेखकों ने किसी एक विचारधारा को अपना सेल्समेन बनाया और बाजार में बिक गए ... अभिव्यक्ति की "स्वतंत्रता" कब सीमाएं मर्यादा लांघ "स्वच्छंदता" हो गयी क़ि असमर्थ पाठक समझ भी न पाया . धूर्त आलोचक सचेत होता तब तक बहुत देर हो चुकी थी . अभिव्यक्ति की आज़ादी भौकने की आज़ादी बन चुकी थी ...समाज कुत्सित हुआ और साहित्य कुरूप और एक दिन वह भी आया कि "...बीडी जलाईले जिगर से पीया ..." को वर्ष का सर्वश्रेष्ठ (फ़िल्मी ) गीत माना गया ....वामपंथी नारेबाजी ने साहित्य को राजनीतिक उपकरण बनाया और स्थापित प्रतीक तोड़े जाने लगे ...इसमें दक्षिण पंथीयों ने भी पराक्रम दिखाया इस्लामिक मूर्ति भंजक संस्कार जब साहित्य में आये तो सलमान रश्दी और तस्लिमा नसरीन ने मुसलमान विरोधी विचारधारा का बाज़ार तलाश लिया तो उधर अरुंधती ने वामपंथी चेतना के बहाने अमेरिका पर निशाना साधा और अपना बाज़ार पा ही गयी ...इस प्रकार रचना धर्मिता की मौत हुयी और बाज़ार धर्मिता विकसित हुयी ... युद्ध बनाम प्रबुद्ध होता था ...अब राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लोगों ने साहित्य को हथियार बनाया ...एक ऐसा हथियार जो बाजार में खरीदा और बेचा जाता था ....सांस्कृतिक युद्ध चालू हुए ...सभ्यताएं तीतर -बटेर की तरह लड़ाई गयीं ....सांस्कृतिक प्रतीकों को तोड़ने के लिए सांस्कृतिक सुपाड़ी भी दी गयीं . चूंकि विश्व विशेषकर एशिया इस्लामिक मूर्ति भंजकों से आक्रान्त था सो सलमान रश्दी और तस्लिमा ने इस्लाम के प्रतीकों का भंजन कर शेष सम्प्रदायों को संतुष्टि दी और मूर्ति भंजन को जायज ठहराने वाले मुसलमानों पर अपनी छवि को टूटे देखने के अलावा और कोई चारा नहीं था न इसको रोक पाने के तर्क ही अतः मूर्ति भंजन की इस अघोषित बहस में जहां पहला चरण बामियान की मूर्तियाँ तोड़ने तक इस्लामिक लोगों का था वहीं दूसरा चरण वैचारिक मूर्ती भंजन से रश्दी और तसलीमा जैसों ने जारी किया और बाज़ार पा गए . इसी प्रक्रिया का उत्पाद हैं सलमान रश्दी ,तसलीमा नसरीन ,अरुंधती राय जैसे लोग जिन्होंने समाज में संवाद कम और विवाद अधिक कायम किया है ....इस हमलावर दौर में हम किस सांस्कृतिक टापू पर हैं ?---यह हमको सोचना समझना होगा ." ------ राजीव चतुर्वेदी
     
    
जहाँ प्रकाशक नहीं होते वहाँ साहित्य नयी ऊँचाइयाँ छूता है


"जहाँ प्रकाशक नहीं होते वहाँ साहित्य नयी ऊँचाइयाँ छूता है । कबीर, सूर, तुलसी, कालिदास, ओ हेनरी, ऑस्कर वाइल्ड, सेक्सपियर,गोर्की, पुश्किन, प्रेम चंद, मीर तक़ी 'मीर', ग़ालिब, खलील जिब्रान । अवतार सिंह 'पाश' को उनके जीवनकाल में प्रकाशक ही नहीं मिलता है । पश्तो की कवित्री लल छंद । उत्तराखंड के जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दा' । दरअसल प्रकाशक बाज़ार तलाशता है और बाज़ार का आचरण उसके मूल्याँकन का व्याकरण तय करता है । मौलिक लेखन वर्फ़ से ढंका पहाड़ है तो प्रकाशक वर्फ़ की दूकान ...मौलिक लेखन देवदार, चिनार, सागौन के पेड़ हैं तो प्रकाशक लकड़ी की टाल... मौलिक लेखन अगर ओस की बूँद है ,झील है , कलकल बहती नदी है , समुद्र है तो प्रकाशक बोतल के पानी का व्यापारी । इस परिदृश्य को उन लोगों ने और जटिल बना दिया है जो अपना काव्य संकलन खुद ही छपवा कर बांटते घूम रहे हैं । आज कल घूसखोर पदों पर तैनात नौकरशाहों के काव्य संकलन को अपने उदर का ध्यान करके उदार प्रकाशक मिल ही जाता है ... आचानक आयकर अधिकारियों की जमात से स्वयंभू महान कवियों की सबसे बड़ी खेप निकल रहीं हैं । याद रहे ! बंगलों के गमलों में उगे बोनसाई के पौधे बोध बृक्ष नहीं होते ।"----- राजीव चतुर्वेदी

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