Wednesday, January 16, 2013

कुछ ने समझा शब्दों का पथराव करो तो संस्कृति बनती है

"कुछ ने समझा शब्दों का पथराव करो तो संस्कृति बनती है
मैं भी फिर गुम्मेबाजी शामिल था
कुछ शब्द गिरे तो सर फूटा
कुछ शब्द गिरे तो दिल टूटा
कुछ शब्द गिरे अरमानो पर
कुछ शब्द गिरे वीरानो पर
कुछ धर्मों पर भी गिरे यहाँ
कुछ कर्मों पर भी गिरे यहाँ
कुछ शब्द हवा में उछले थे जा टकराए वह सिद्धांतों से
कुछ शब्द बहस में भटके तो जा टकराए वह वेदान्तों से
कुछ पुराण से टकराए
कुछ कुरआन से टकराए
कुछ समाज के प्रावधान से टकराए
कुछ संविधान से टकराए
कुछ मनुवादी थे ...कुछ अवसरवादी
कुछ प्रगतिशील ...कुछ पूंजीवादी
अवसरवादी के हाथ चले यह सब गुम्मे
चलते -चलते पूरी आबादी से टकराए
अब संस्कृतियों के कायल हम घायल से बैठे हैं
संस्कृतियों के संघर्षों में ...परिभाषाओं के बलवे में,... शब्दों के मलवे में
हम घायल से बैठे हैं, ---कोई दवा करो
पर शब्द हमारे मत मलना ."
----- राजीव चतुर्वेदी

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्द सुलझाने के लिये थे, उसकी मात्राओं में ही उलझ बैठे सब।