"नेता" किसे कहा जाए ? आखिर "नेता" की परिभाषा क्या है ? नेता शब्द
संस्कृति से आया है "नेता" वह जो नयन व्यापार करे यानी किसी चिन्हित लक्ष्य
तक ले जाने का काम करे . Some time "actual meaning" of a word is
different than the "notional meaning" . "Leader" is also one of the same
. यहाँ "संगठन" और "गिरोह" के अंतर को भी समझना जरूरी है . संगठन सिद्धांतनिष्ठ
होता है और गिरोह व्यक्तिनिष्ठ . नेता या Leader वह व्यक्ति होता है जो उस
संदर्भगत तात्कालिक समाज को ऊष्मा का सुचालक बना कर अपने द्वारा लागू
सांगठनिक अनुशाशन का अनुपालन करने को प्रेरित कर पालन भी करवाए . नेता वह
व्यक्ति इकाई है जिस पर किसी चिन्हित उद्देश्य या विश्वास को लेकर अन्य
बिखरी हुयी व्यक्ति इकाईयां आलाम्बित और घनीभूत (polarize ) होती हैं . नेता
संगठन और संगठन के विघटन का कारक तत्व होता है पर गिरोह का नहीं . गिरोह
में नेता नहीं होता सरगना होता है . आज कल प्रायः सभी राजनीतिक दल "संगठन"
नहीं "गिरोह" है क्योंकि संगठन सिद्धांतनिष्ठ होता है और गिरोह
व्यक्तिनिष्ठ .
राजनीति और पौलिटिक्स, ये दोनों शब्द एक
अर्थ नहीं रखते. आधुनिक भारतीय लोग जो संस्कृत या ग्रीक भाषा का ज्ञान
नहीं रखते उनके कारण, यह त्रुटि व्यापक है."पौलिटिक्स" शब्द का मूल, ग्रीक
का पलुस (palus) है, जिसका अर्थ, पोल, डंडा, झंडा या खम्भा होता है जो
जीतने वाला अपना अधिकार जताने के लिए भूमि पर गाड़ता है. अधिकार की इस लडाई
और, जीत या हार के बाद, झंडा गाड़ कर, अपना अपना शासन बढाने वाले लोग ही
पालिटीशियन हैं. इस पृथ्वी के हर भाग पर, और हर एक वस्तु पर, किसी न किसी
का अधिकार हो चुका है. और इस तरह, अधिकारों की लडाई का होना निश्चित है.
रण- नीति की यह विशेष सोच ही पालिटिक्स कहलाती है. योद्धा या असुर बल
पूर्वक, अपने अधिकार के लिए लड़ते हैं; और निर्बल होने पर, भय के कारण
अधिकार को छोड़ भी देते हैं. बल और अंहकार, युद्ध क्षेत्र का निर्णायक है.
युद्ध, अँधा होता है. इसी तरह, न्याय, अधिकार क्षेत्र की निर्णायक है. वह
भी अंधी होती है. न्याय, भी अधिकार की लडाई है; और जो अधिकारी नहीं हैं,
उनके लिए न्याय नहीं है. बल से अधिकार, और अधिकार की रक्षा के लिए न्याय
बनाया गया है. युद्ध, पालिटिक्स और न्याय, शासन, बाज़ार, आदि एक ही कुल के
शब्द हैं. बाज़ार भी लेन-देन को नहीं कहते बल्कि खरीदने और बेचने को कहते
हैं, जहाँ वस्तु का अधिकार बिकता है, वस्तु नहीं. संस्कृत में अधिकार की
रक्षा करने वाले, जैसे शस्त्र बल, पालिटीशियन, सरकारी अधिकारी या जज, या
पोलिस, को "राक्षस" (मूल : रक्षा) कहते हैं. ये लोग रक्षा और नियंत्रण के
लिए ही कानून और नीति बनाते हैं, किन्तु वह कानून या नीति उन पर लागू नहीं
होता. कानून का जाल बनाने वाला उसी अपने बनाये जाल या कानून से बंध नहीं
सकता. गैर-कानूनी या कानून से ऊपर होने का यह अधिकार ही पोलिटिक्स है.
सिद्धांत यह है, जो नए कानून बना सकता है, पुराने कानून को वही तोडेगा,
इसलिए कानून की परिभाषा में, किसी भी राक्षस या पोलिटिशियन का अपराधी
(क्रिमिनल) होना नितांत आवश्यक है. गाँधी ने, वकील हो कर भी, बहुत सारे
कानून तोडे थे और उन्हें तत्कालीन कानून के द्वारा जेल जाने का दंड सहना
पड़ा था. जो कर्तव्य मार्ग या धर्म के निर्वाह में, कानून या दंड से डर
जाते हैं, उनको श्रेष्ठ राक्षस नहीं कहते. असुरक्षित राक्षस जो चरित्र के
पतन से भयभीत होकर नियंत्रण करने के लिए कानून बनाता और तोड़ता है और लोगों
के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकता, उसे पतित राक्षस कहते हैं. रावण की तरह
ही, भारत के भ्रष्ट सरकारी तंत्र पतित राक्षस के ही उदाहरण हैं.राक्षस, तमो
गुण या, भौतिक (भूत) शास्त्र का अधिष्ठाता होने के कारण, उनके देवता भगवन
शिव हैं, जो पशुपति कहलाते हैं. राक्षस, पशु वर्ग का शासक या पालक है. पशु
अर्थात भौतिक सिद्धांतो पर आधारित वैज्ञानिक जीवन की आवश्यकता की पूर्ति की
जिम्मेवारी भगवन शिव ही करते हैं, और वे ही महा काल बन, संहार भी करते
हैं. यही प्रकृति का नियम है. उनके आलावा कोई मनुष्य या राक्षस नियम नहीं
बना सकता. राक्षस व्यवस्था में, ध्यान रहे, आम व्यक्ति का, राक्षसों के
कार्य और चरित्र का अनुकरण गैर-कानूनी है. एक पोलिस, का कार्य उसका अधिकार
है, उसका अपना चरित्र और कार्य भी व्यक्तिगत नहीं है. वे कानून से बनी मशीन
के निर्जीव पुर्जे हैं. इस कारण, कोई भी व्यक्ति, पोलिस या जज, या
पालिटीशियन बनने के लिए इच्छा या अनुकरण पर्याप्त नहीं है. बिन बल प्रयोग
या युद्ध के, अधिकार नहीं मिलता. और युद्ध में सफलता के लिए ही संगठन, रण-
नीतियों, और तकनीक का निर्माण किया जाता है, यही पालिटिक्स ही असुर नीति का
रहस्य है. एक भूखा व्यक्ति जो अपना जीवन बचाने के लिए, बिना लडाई किये,
अन्य मार्ग जैसे चोरी करना या सर झुका कर कोई काम मांगता है तो उसे शासक
वर्ग या सरकारी तंत्र कभी महत्त्व नहीं देता. लेकिन एक आतंकवादी या कोई भी
व्यक्ति, जो शासक के अधिकार को चैलेन्ज कर देता है, और अधिकार की
महत्वाकांक्षा से प्रेरित है, उसे सभी महत्त्व देते हैं. उससे लड़ने में
सरकारों को भी गर्व होता है. एक उदाहरण देखें. अमेरिका एक विकसित देश सिर्फ
इसलिए है, की वहां अधिकारों की लडाई करना एक सभ्यता बन चुकी है. वहां, पति
पत्नी भी सम्बन्ध भी मुक्त बाज़ार; और बीच बचाव के लिए, कानून पर निर्भर
है. अस्त्र और कानून वहां आम प्रयोग की वस्तु हैं. अमेरिका की तरह, कभी
लंका का शासक या राक्षस ("पोलिटिशियन") रावण था. संगठन और कानून से बना,
सोने जैसा वह राष्ट्र था, अर्थात सुख सुविधा, विलासिता, प्रतिस्प्रधा, और
कुत्सित आकर्षण से भरा हुआ था. इतिहास और पुराणों में, (ग्रीक के)
सोक्रटीस, राक्षस कुल के ऋषि शुक्राचार्य के तुल्य हैं. उन्होंने पोलिटिक्स
(अधिकार और अंहकार ) द्वारा आसुरी (पाशविक) शक्तिओं के उपयोग के लिए कानून
और दंड का विधान कर, महान राष्ट्रों का निर्माण किया. राष्ट्र एक संगठन को
कहते हैं, और जो व्यक्ति या शासन की व्यवस्था उसे धारण करती है, उसे
धृत-राष्ट्र, राष्ट्र-पति , राष्ट्र-पिता या राष्ट्र-अध्यक्ष या शासक कहते
हैं . धृत-राष्ट्र यह सोचता है कि असुरों के राष्ट्र निर्माण में लगने से
वे उन अप्राप्य (ऊंचे) लक्ष्य से जुड़ जाते हैं; और जब तक वह लक्ष्य
प्राप्त नहीं होता, वे एक दूसरे के लिए खतरा नहीं बनते. इसे व्यवसाय भी
कहते हैं. शुक्र जिसे लैटिन भाषा में वीनस भी कहते हैं, सुन्दरता और
विलासिता का स्वर्ग है. वेनिस नाम का एक पुराना किन्तु सुन्दर शहर या
राष्ट्र, योरप में आज भी है. जबकि राम-राज्य ("राजा" राम की रज भूमि) में
राज-नीति के कारण, व्यवस्था इसकी उलटी थी. राम- राज्य में विलासिता, रोग,
विरोध, न्याय या अधिकारों की रक्षा की जरूरत ही नहीं थी. अयोध्या के आदर्श
(राजा) श्री राम ने स्वयं भी अपने वन- गमन का विरोध नहीं किया और न्याय का
तो प्रश्न ही नहीं उठाया गया. लंका के पतित शासक के वध के बाद, श्री राम ने
उस प्रदेश के अधिकार पर सोचा तक नहीं. राज-नीति शब्द का मूल रज है. रज का
अर्थ है, धूल या कण. रज, सत गुण का त्याग किया गया पदार्थ है. गाय का
स्वभाव सत है, किन्तु दूध, उसका रज है. संसार में, जो भी व्यक्ति, अपने
कार्यों से अनुकरणीय बन चुके है, उसके प्रभाव को रोका नहीं जा सकता. रज या
धूल इसलिए ही स्वतः फैलती है. गांधी, कोई शासक या राक्षस नहीं थे, इसलिए
उनका अनुकरण आज भी गैर-कानूनी नहीं है और न रहेगा. एक जज या सरकारी अधिकारी
बनना स्वेच्छा से संभव नहीं है, किन्तु गाँधी या टेरेसा बनने पर रोक नहीं
है. इस तरह के आदर्श व्यक्तित्व को संस्कृत वांग्मय में "राजा" कहते हैं.
जिस तरह, असुर कुल में, पशु के पालक पशुपति हैं, उसी तरह प्रज्ञा (प्रजा)
के लिए प्रजापति या राजा है. राजा किसी पर नियंत्रण या उनका पालन या उनके
अधिकारों की रक्षा नहीं करता, बल्कि उसे विश्वास की शक्ति का प्रयोग आता
है. वह स्वयं को नियंत्रित करता है, जिससे उनको देख लोग प्रेरणा ले. राजा,
एक सहायक या मार्ग दर्शक होता है, जो धर्म में प्रवीण है, जबकि राक्षस,
रक्षा, भय, पालन या नियंत्रण का व्यवसाय करते हैं. श्री कृष्ण और गाँधी
इसके उदाहरण हैं. कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि जीवन का उद्देश्य, जीवन से
बड़ा होता है. इसलिए युद्ध में मृत्यु का भय नहीं होना चाहिए. धर्म के
मार्ग पर, मरना या मारना दोनों ही श्रेष्ठ हैं. मनुष्य का स्व-धर्म से पतित
होना ही हिंसा है. श्री कृष्ण से प्रेरित, गाँधी ने आगे चल कर अहिंसा को
विरोध का साधन बनाया और मृत्यु के भय से भारतीयों को मुक्त कर दिया.
राक्षसों (अंग्रेज शासकों ) की सोच, जन्म- मृत्यु की सीमा से आगे नहीं जा
सकी थी, इसलिए वे शक्तिशाली हो कर भी पराजित हुए. राजा का यह निश्चय ही
राजनीति है. आज भी राम, कृष्ण, बुद्ध, गाँधी का नाम राजा से संबोधित होता
है, क्योंकि वे हमारे आदर्श बने. रक्षा कुल या राक्षस, जिसमें शासक या
सरकारी अधिकारी या जज या पोलिस या पोलितीशियन हैं, उनका का नाम इतिहास की
किताबों में दफ़न रहता है, और उनको जानने वाले, कम ही मिलते हैं. राक्षस
होना बुरा नहीं है, किन्तु उसकी सोच अधिकार तक ही सीमित होती है इसलिए
उनमें दया , क्षमा और उदारता और प्रेम नहीं होती . एक जज या शासक का अपमान
नहीं किया जा सकता. यह गैर कानूनी और दंडनीय है. जबकि राजा, जो अधिकार की
लडाई को अज्ञान और अंहकार का रोग समझते हैं, वे वह मान- अपमान या कर्म बंधन
या व्यवसाय से कभी भी नहीं बंधते. राजा, रज =कण की तरह संवेदनशील हो कर हर
एक के प्रकृति से बिना प्रयत्नं ही मिल जाता है. जहाँ तक, अपमान की बात
है, श्री कृष्ण, जो अपना पराया नहीं समझ सकते, उनको अज्ञानी लोग प्रेम से,
माखन चोर कहते थे . अयोध्या (या अवध) अर्थात जहाँ का आदर्श युद्ध (या वध)
का न होना है उनके राजा श्री राम को युद्ध या वध करना पड़ा. और वे अयोध्या
के आदर्श के विपरीत, योद्धा कहलाये. गाँधी, दक्षिण अफ्रीका में हुए एक
अपमान से ही, भारत या इस काल में, मनुष्यता की स्वतंत्रता की आवश्यकता को
समझ सके थे. गाँधी यदि अपमान से डर जाते, तो यह देश कभी आजाद नहीं हो सकता
था. कभी ब्रिटिश कानून के पंडित रहे, काले कोट पहनने वाले गाँधी ने भारत
आकर तत्कालीन कानून और संगठन की शक्तियों को असहाय मनुष्यों (जिस तरह वानर
ने श्री राम की सहायता की थी) द्वारा तोड़ कर दिखाया, और उन्हें महात्मा
कहा गया.लेकिन यह भी सच है , कि यदि भारत गुलाम ही रहता तो यह देश
अंग्रेजों के शासन में रह कर, आज अमेरिका से बहुत आगे होता. चीन का शंघाई,
भारत से बाहर बसने की ललक और अप्रवासी भारतीय का देसी भारतीयों के प्रति
हीन भाव इसका प्रमाण है. ध्यान रहे, एक पशु सभ्यता का विकास केवल राक्षस
(शासक, पोलिटिक्स , अधिकार की शक्ति ) ही कर सकता है. जबकि, राजा और और
राजनीति केवल मनुष्यों का आदर्श है . गाँधी ने निर्धन भारतीयों को हीन
नहीं, दीन (दया के सुपात्र ) कहा था. दीनता, संग्रह न करने का मनुष्यों का
एक चारित्रिक गुण है. भारत में आज कल असुरों का शासन है. भले ही हम
अंग्रेजों के गुलाम न हों किन्तु उनके शासन विधि को अपना कर, अब हम उन
लोगों के गुलाम बन गए जो अंग्रेजो के गुलाम हैं. यह एक बड़ी विचित्र स्थिति
है. इसलिए अब भारतीय सभ्यता को पहिले अंग्रेजों का उद्धार करना होगा,
जिसके बाद ही भारत गुलामी से मुक्त हो सकता है. शायद यही कारण रहा होगा कि
मेधावी वैज्ञानिक और संत, भारत छोड़ कर अमेरिका में बस गए. यह भी देखा गया
है, कि विदेशों में हिंदी और संस्कृत पर शोध का स्तर बहुत ऊंचा है. मेक्स
मुलर को पढ़ कर इसका अनुमान लग जाता है, कि एक मनुष्य में स्वतंत्रता का
शोध उसके इतिहास से बंधा नहीं है. एक जर्मन को भारतीय ग्रंथों की जानकारी
विस्मय करने वाली है. वह दिन अब दूर नहीं है जब भारत में संस्कृत सिखाने के
लिए विद्वान् जर्मनी या हालैंड से आया करेंगे. भारत के पालिटिशियन बहुत
दुष्ट हैं. उनके जीवन की सुरक्षा की तुलना आतकवादियों से ही की जा सकती है
जो हमेशा अपनों से ही डरते हैं. इन लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा टेलीविसन के
द्वारा कब तक बनायी जा सकती है. वे भारत को निर्बल राष्ट्र सिर्फ इसलिए
बना कर रखना चाहते हैं ताकि उनकी सामंत वादी सोच को कोई खतरा न हो. राष्ट्र
पर केंद्र का नियंत्रण जन-तंत्र को असहाय बना देता है. अंग्रेज यही करते
थे. आज भी भारत के लोगों के पैसे का इस्तेमाल भारतीय सरकारें अपनी शान के
लिए ही करती हैं. जिस देश में, पीने का पानी उपलब्ध न हो, और किसान भूखे
हो, गरीबों को आदमी न समझा जाता हो, वी-आई-पी कल्चर बढ़ रहा हो, शिक्षा और
स्वास्थ्य जहाँ आम निवासी के लिए चिंता का विषय हो, जहाँ हर रोज समाचार का
पहिला पेज अपराधिक घटनाओं से भरा हो, उस राष्ट्र में दिल्ली में हो रहे
राष्ट्र संघ खेल, एक शोक का विषय है. इस खेल में, भारतीयों का धन कुछ जेबों
में जा रहा हैं. आर्थिक स्वावलंबन का ढांचा विकेन्द्रित रूप से विकसित न
हो पाने से लोग सरकारों पर निर्भर हैं, सरकारों की रूचि निर्धन और असंगठित
लोगों में नहीं है. बिहार में, कोसी नदी का बाँध सरकारी संपत्ति है किन्तु
उसके टूटने से लाखों लोग बर्बाद हो गए. यदि उस बाँध को वहीँ के लोगों ने
बनाया होता, और सरकारी आर्थिक मदद ही दी गयी होती, तो गाव के लोग उसका
ध्यान रखते और यह बिपत्ति न होती या बिपत्ति से ज्ञान और संवेदना होती. अब
यदि इस देश में कानून होता तो, सरकार का सारा बजट उन्हें मुआवजा देने में
ही चला जाता. इसके विपरीत सरकार को इस बिपत्ति से भी लाभ होगा. चुनाव का
ढंग भी विचित्र है. जिस व्यक्ति को जाना नहीं जा सकता उनमें से चुनाव करना,
कैसे संभव है. मिडिया, मनोरंजन, अलगाव और भ्रष्टाचार ही चुनाव के तंत्र
हैं. जो भष्टाचार नहीं कर ककते, जो गुटवादी नहीं हैं, या मनोरंजन नहीं कर
सकते या, जिन्होंने मिडिया को नहीं खरीद लिया है उनका चुनाव जीतना संभव
कैसे होगा?. इस आर्थिक खेल में भारतीयता का विकास कैसे संभव है. सच्चरित्र
लोग अब कानून और शासक तंत्र से डरते हैं." -----राजीव चतुर्वेदी