Saturday, June 27, 2015

लड़कियाँ पागल होती हैं

"लड़कियाँ पागल होती हैं
बचपन में लड़कियाँ अपना बचपना भूल अपने भाइयों को माँ की तरह दुलराती हैं
बचपन में लड़कियाँ खुद अच्छी चीजें नहीं खाती अपने भाइयों को खिलाती हैं
बचपन में लड़कियाँ खिलोनों के लिए जिद नहीं करतीं
अपने भाइयों को खिलौने दिलाती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


"प्यार करना सबसे बड़ा गुनाह है" --- यह समझाया जाता है लड़कियों को बार-बार
इसलिए प्यार करना चाह कर भी किसी लड़के से प्यार नहीं करतीं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं
फिर एक दिन लड़कियाँ न चाह कर भी प्यार कर लेती हैं
और फिर उससे पागलपन की हद तक प्यार करती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


लड़कियाँ जिससे कभी प्यार नहीं करतीं
उससे भी घरवालों के शादी कर देने पर प्यार करने लगती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

लड़कियाँ एक दिन माँ बनती हैं
फिर अपने बच्चों से पागलपन की हद तक प्यार करती हैं
एक-एक कर उनको सभी छोड़-छोड़ कर जाते रहते हैं
माता -पिता -भाई बताते हैं तुम परायेघर की हो
लड़कियाँ फिर भी उन्हें अपना मानती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

फिर ससुराल में बताया जाता है कि तुम पराये घर की हो
फिर भी वह ससुराल को अपना ही घर मान लेती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


लड़कियों को तो बचपन में ही बताया गया था
कि प्यार इस दुनियाँ का सबसे बड़ा गुनाह है
फिर भी लड़कियाँ प्यार करती हैं
बेटी बहन प्रेमिका पत्नी नानी और दादी के बदलते रूपों में भी प्यार करती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

मनोवैज्ञानिक विद्वान् भावनाओं की बाढ़ को पागलपन कहते हैं
हानि -लाभ तो भौतिक घटना हैं
लड़कियाँ भावनाओं की पटरी पर दौड़ती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं
अंत में लड़कियाँ पछताती हैं कि उन्होंने प्यार क्यों किया
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं .
" ---- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, June 14, 2015

सिंगल पेरेंट ... अरे , अकेले तो पेरेंट बने नहीं थे फिर क्या हो गया ?


"
Single Parent
...सिंगल पेरेंट ... अरे , अकेले तो पेरेंट बने नहीं थे फिर क्या हो गया ? ... और जो हो गया सो हो गया ...आपके गलत निर्णय का खामियाजा आपके बच्चे क्यों भुगतें --- प्रायः इस अपराधबोध से शुरू होती है सिंगिल पेरेंट की कहानी ...जिसको अपराध बोध के साथ दायित्वबोध भी होता है वह सिंगिल पेरेंट का किरदार या जिम्मेदारी निभाता है ...चूंकि माँ प्राकृतिक संरक्षक होती है सो प्रायः माँ ही सिंगिल पेरेंट का दायित्व निभाती है या कभी कभी भुगतती है ...लव कुश की माँ सीता सिंगिल पेरेंट थी ...कर्ण की माँ कुन्ती सिंगिल पेरेंट थीं ... ईसा मसीह की माँ मैरी सिंगिल पेरेंट थीं ...शिवाजी की माँ जीजाबाई सिंगिल पेरेंट थीं ...झांसी की रानी लक्ष्मी बाई सिंगिल पेरेंट थी ...पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन खां की माँ सिंगिल पेरेंट थीं ...कमला नेहरू के बाद जवाहरलाल नेहरू इंदिरा गाँधी के सिंगिल पेरेंट थे और इंदिरा गाँधी राजीव तथा संजय गाँधी की सिंगिल पेरेंट थीं ...पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो बेनजीर के सिंगिल पेरेंट थे ...यह इतना महान काम भी नहीं की जितना महान बता कर कुछ लोग अपनी पीठ थपथापा रहे हैं ...प्यार की दैहिक अभिव्यक्ति का उत्पाद हैं बच्चे ...तो बच्चे तो होने ही थे ...हो गए ...कोई व्यक्ति अपने हाथ झाड़ कर चल दिया और किसी ने अपनी जिम्मेदारी निभाई ...जो हाथ झाड़ कर चल दिया वह निंदनीय है ...गैर जिम्मेदार है और जिसने अपनी जिम्मेदारी निभाई उसने महज अपनी जिम्मेदारी ही तो निभाई किसी पर कोई अहसान तो किया नहीं ...प्यार उसने किया था तो जिम्मेदारी भी उसने निभाई बात यहाँ तक न्याय संगत है अब इसमें आगे भावनाओं का तड़का न लगाइए ....प्यार आप करेंगे तो उसके प्रतिफल या प्रसाद या अवसाद की जिम्मेदारी मोहल्लेवाले या समाज थोड़े ही निभाएगा ... आपने मोहल्ले या समाज से प्यार थोड़े ही किया था ?... आपने जिससे प्यार किया था वह गुजर गया या गुजर गयी या पलायन कर गया ...इसी परिदृश्य में सिंगिल पेरेंट का दायित्व प्रायः माँ पर ही प्राकृतिकरूप से आता है ...आदमी बनने की प्रक्रिया में हम अपने आपको पशु के बेहद करीब पाते हैं ...देखिये गाया/भेंस/ बकरी /कुतिया आदि या यों कहें कि प्रायः स्तनपायी ( mammalia ) वर्ग के प्राणी सिंगिल पेरेंट होते हैं ...जो प्राणी पंख वाले होते हैं वह सिंगिल पेरेंट नहीं होते यानी माता-पिता मिल कर अपने प्यार के उत्पाद को पालते हैं ...सरीसृप यानी reptile भी सिंगिल पेरेंट होते हैं ...इस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पहले महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए समाज स्त्री -पुरुष के दैहिक रिश्तों को नियंत्रित संचालित और संपादित करता था ...लेकिन जब सेक्स के लिए लोगों ने सामाजिक मूल्यों और आचार संहिता को धता बता दी तो फिर समाज की जिम्मेदारी भी नहीं रही ...."मैं चाहे ये करूँ...मैं चाहे वो करूँ ...मेरी मर्जी ." या लिव इन रिलेशनशिप तो फिर भुगतो ... समाज से पूछ नहीं तो समाज की जवाबदेही क्यों हो ? ...पर अभी बात अधूरी है , पूरी तो होने दीजिये ...एक बड़ा वर्ग वह भी तो है जो अपने कार्य की स्थितियों के कारण सिंगिल पेरेंट हैं जैसे सेना / मर्चेंट नेवी / प्रवजन मजदूर ( migrant labour ) आदि ... इनके बच्चों को भी सिंगिल पेरेंट पर ही निर्भर रहना पड़ता है और किसी हादसे में पति /पत्नी में से किसी एक की मृत्यु पर भी ...और वह दम्पति भी जो साथ चलने की कोशिश में तो थे पर साढ़ चल न सके और तलाक /डाइवोर्स हो गया और बच्चोंबच्ज्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी माँ पर आ गयी...ऐसी स्थिति में बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी किसकी हो ?...और अब संयुक्त परिवार भी तो नहीं ... पर ऐसे में उस नन्हें नागरिक का दोष क्या है जो धरती पर आ गया और उसे बड़ा होना है ? इस लिए सिंगिल पेरेंट की बात नहीं बात तो सिंगिल पेरेंट के बच्चों की है और उनकी मानसिकता में आयीं ख़राशों व मनोविज्ञान के फफोलों की होनी चाहिए ...आपके मजे / गलत निर्णय / प्रयोग की सजा वह क्यों भुगते ? ...पर दाम्पत्य या प्यार के प्रयोग की असफलता का बोझ स्त्री को ही ढोना पड़ता है पुरुष को नहीं क्यों कि पुरुष पर बच्चों की जिम्मेदारी से भाग खड़े होने का विकल्प है जबकि माँ विकल्प नहीं संकल्प का नाम है . मैंने यहाँ माँ की भावनाओं का वस्तुनिष्ठ परीक्षण करने का कोई दुस्साहस नहीं किया है ...बस यहाँ भावनात्मक नहीं भौतिक स्थितियों की समीक्षा है ." ---- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, June 11, 2015

योग क्या है ? ...संयोग ...वियोग ...उपयोग ...जीवन की यात्रा में आप कहाँ हैं ?

" योग क्या है ? ...संयोग ...वियोग ...उपयोग ...जीवन की यात्रा में आप कहाँ हैं ?...किस दिशा दशा में हैं ? ...संयोग से सृजन होता है और सृजन होते ही विसृजन ( जिसे अपभ्रंश करके लोग "विसर्जन" कहते हैं ) की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है ...जिन तत्वों के योग से हम अस्तित्व में आये उनका वियोग प्रारंभ हो जाता है ...क्षरण की प्रक्रिया ...विकिरण की प्रक्रिया ...हम ब्रम्हांड में विलीन होने लगते हैं ... जन्म के बाद / सृजन के बाद फिर जन्म तो होना नहीं है ... जन्म होते ही मरने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है ...मृत्य निश्चित है ...मृत्यु हमारे सृजन का विसृजन है ...आन्तरिक तत्वों के संगठन का विघटन है ...और इस विसृजन की ...इस विघटन की प्रक्रिया को यानी मृत्यु को आगे धकेलना ...टालना ...विलंबित करना तभी संभव है जब विघटन को , विसृजन को , वियोग को रोका जाए या उसकी प्रक्रिया को धीमा कर दिया जाए ...इसी आंतरिक तत्वों के वियोग को रोकना ही "योग" है . हिन्दवी लोकचेतना कहती है --- " क्षिति जल पावक गगन समीरा / पंच तत्व का अधम शरीरा ." तो इस्लाम को इह्लाम होता है --" जिन्दगी क्या है अनासिर का जहूर -ऐ -तरतीब / मौत क्या है इन्हीं अजीजाँ का परेशान होना ." कुल मिला कर बात एक ही है ...जब स्त्री पुरुष /प्रकृति /परमेश्वर , मौसम , वातावरण ,आकांक्षा ...देह ...दैहिक रसायन का संयोग होता है तो शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) का प्रवाह होता है ...असंख्य शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) प्रवाहित होते हैं ...पर अधिकाँश योग नहीं बना पाते तो संयोग की अवस्था के पहले ही समाप्त हो जाते हैं ...निष्प्रयोज्य ...कुछ शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) का भी संयोग होता है ...अगर पुरुष-स्त्री की तरफ से प्रवाहित शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) में Y Y शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) का योग हुआ तो यह संयोग लड़की (स्त्री ) का सृजन करता है और यदि पुरुष -स्त्री की तरफ से प्रवाहित शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) में XY शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) का योग हुआ तो वह संयोग लड़के (पुरुष ) का सृजन करता है . लड़की (स्त्री ) में जब तक यह योग बना रहता है उसका स्त्रीत्व बना रहता है और जब इस योग में वियोग की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है स्त्रीत्व जाने लगता है ...मोनोपौज़ की आहट से बौखलाहट होती है ...जिन्दगी जा रही है ...दांत साथ निभाना कम करते हैं ...जिन्दगी जा रही है ...सर पर बाल कम होने लगते हैं सफ़ेद होने लगते हैं ...जिन्दगी से रंग जा रहा है ...जिन्दगी जा रही है ... चेहरे पर झुर्रियां आ चली हैं ...शरीर के अंग स्पेयर पार्ट्स चरमराने लगे हैं ...दर्द करने लगे हैं ...योग वियोग में बदल रहा है ...रोको !! ...रोको !! ...पर कैसे ? ...लड़के (पुरुष ) की जिन्दगी में भी यही हो रहा है ...मन और शरीर का संयोग सृजन में स्त्री का सहायक था साझीदार था ...अब मन और शरीर का योग धीरे धीरे वियोग की तरफ चल पड़ा है ...मन में कामाकान्क्षा है पर शरीर सहयोग नहीं दे रहा ...मन में रस है , अच्छा भोजन करने की इच्छा है पर पाचन क्रिया साथ नहीं दे रही ...मन दौड़ रहा है और शरीर दौड़ नहीं पा रहा घिसट रहा है ...वह योग जो हर रास रंग स्वाद में संयोग बनाता था अब असहयोग कर रहा है ...वियोग की और चल पड़ा ...जीवन जा रहा है ...योग टूट रहा है ......रोको !! ...रोको !! ...पर कैसे ?...यही वह अवसर है जब आपको योग की जरूरत है ...बेहद जरूरत है ...पहले से कहीं ज्यादा जरूरत है ...मन शरीर और शरीर के विभिन्न अंग आपस में योग की अवस्था में होंगे तो संयोग भी संभव है ...और संयोग में जीवन संगीत निकलेगा ...सुन नहीं सकोगे इस संगीत को अनुभूति करोगे ...और अगर मन शरीर और शरीर के विभिन्न अंग आपस में असहयोग की अवस्था में होंगे तो वियोग अवश्यमभावी है ...और इस वियोग में ...शरीर के मन और चेतना के वियोग में शरीर के विभिन्न अंग परस्पर असहयोग करेंगे ...असहयोग में अशांति होगी ...शरीर के विभिन्न अंग कराहेंगे ...चीखोगे / रोओगे ...आत्मा आर्तनाद करेगी ...जब तक योग है संयोग की संभावना है तब तक सामंजस्य है और सामंजस्य को ही संगीत कहते हैं ...जीवन संगीत ...जैसे ही विभिन्न अंगों की ...शरीर और मष्तिष्क की यह लयबद्धता टूटी चीख पड़ोगे ...जीवन का संगीत खो चुके होगे और शोर निकलेगा ...यह वियोग की सुरूआत है ..रोको इसे ...इसके लिए जरूरी है योग ...योग माने Integration ... कुछ का integration हुआ ही नहीं ...कुछ disintegrate होगये ...कुछ की Integrity Doubtful है ....योग का विरोध करने वाले लोगों की Integrity Doubtful है ... Integrity माने व्यक्तित्व की एकजुटता अक्षतता निष्ठा . ---- योग ...संयोग ...वियोग ...उपयोग ...जीवन की यात्रा में आप कहाँ हैं ? ...अपने बिखरते जीवन को बटोरिये ...जीवन के इसी बिखराव के बटोरने की क्रिया को ही तो "योग" कहते हैं ." ------ राजीव चतुर्वेदी

Monday, June 8, 2015

शिक्षा की दशा दिशा और दुर्दशा





"जारों साल से चिल्ला रहे हो --"सर्वे भवन्तु सुखिनः..." क्या हुआ...? ...कुछ कर पाए ? ...इस दिशा में कोई प्रयास कभी कर पाए ?...पहले गुलाम थे तो कुछ नहीं कर सकते थे पर आज़ादी के इन 68 वर्षों में ही क्या कर लिया ? ...समान शिक्षा ...समान चिकित्सा...समान न्याय का नारा आज भी मुँह बाए खड़ा है ...और तुम हजारों साल से चिल्लाये जा रहे हो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' ।"---- राजीव चतुर्वेदी



" शिक्षक से आखिर चाहते क्या हैं ? ... पढाये ? ... पढ़ाने देते ही कब हैं ? ... कर्मठ शिक्षक /शिक्षिकाएं काम के से बोझ पिस रहे हैं और हरामखोर शिक्षक ऐश कर रहे हैं और हर सुविधा के बदले अधिकारी कैश कर रहे हैं ...हरामखोर शिक्षिकाएं या तो शिक्षा विभाग के दलाल कमीनों को कमीशन दे रही हैं यह अपनी सुविधाओं के विस्तार के लिए अधिकारियों के विस्तर के विस्तार का हिसा हैं ...हरामियों के हरम गरम हैं . इन न पढ़ाने वाले , प्रायः स्कूल ही न जाने वाले अध्यापक /अध्यापिकाओं की लम्बी फेहरिस्त है जो बिना कुछ ख़ास काम किये तनख्वाह ले रही है और बदले में अध्यापकों की फ़ौज मौज के बदले कुछ दे रही है और शिक्षिकाओं की फ़ौज मौज के बदले "बहुत कुछ" दे रही है ...इसके लिए अधिकारियों की शिक्षणेतर शारीरिक आर्थिक सेवाएं आवश्यकता के अनुसार करनी पड़ती हैं ...माँग और आपूर्ति के इस खेल में शिक्षिकाओं की मांग का सिन्दूर उनका अवमूल्यन करता है . पर भेड़ियों के अलावा गिद्ध भी तो हैं शिकार शिक्षिका का माँस नोचने को ...ऐसे वातावरण में विशुद्ध अध्यापन की आकांक्षा वाले अध्यापक /अध्यापिका क्या करें ? ... सरकारी योजनाओं में शिक्षणेतर कार्यों की लम्बी फेहरिश्त है ... मसलन जन गणना, भवन गणना ,आर्थिक गणना ,स्वास्थ परिक्षण, हाउस होल्ड सर्वे (बाल गणना),वोटर लिस्ट पुनरीक्षण(BLO) ,पशु गणना ,आधार कार्ड कैंप, पिछड़ी जाति गणना , छात्र वृत्ति का खाता खुलवाने की ड्यूटी , पल्स पोलियो की ड्यूटी ,भवन निर्माण,निर्वाचन में ड्यूटी ये विद्यालय से इतर है और मिड डे मील ,गैस सिलेंडर मंगाने की जिम्मेदारी,ड्रेस वितरण (बिना बजट आये दूकान वालो से उधार मांग कर कपडे बितरणका आदेश),रंगाई पुताई ,फर्नीचर क्रय ,पुस्तक वितरण व् उक्त के अभिलेख सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी , समाजवादी पेंशन प्रधान की संस्तुति का सर्वे और इन कार्यो के लिए कोई यात्रा भत्ता भी नही है । यही नहीं अखिलेश सरकार ने बच्चों को दूध पिलाने की योजना भी बनानी शुरू कर दी है . ...सरकारी शिक्षा के ऐसे परिदृश्य में अगर कुछ कर्मठ शिक्षक हैं तो कामचोर /हरामखोर अध्यापक /अध्यापिकाओं की एक निरंतर बड़ी होती फ़ौज भी है जो शिक्षणेतर सेवाएं दे कर काम चोरी करते हैं ...हर जिले में कुछ खुरापाती सप्लायर और प्रबंधक किस्म के मास्टर हैं तो कुछ खाला टाईप की अध्यापिकाएं भी और यह गिरोह बेसिक शिक्षा अधिकारियों , खंड बेसिक शिक्षा अधिकारियों सहित अन्य अधिकारियों के दैहिक दैविक भौतिक ताप हरण के/की प्रबंधक हैं ... इस वातावरण में शिक्षा की दशा दिशा और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों /अध्यापिकाओं की दुर्दशा का सहज अनुमान लगाया जा सकता है ." ---- राजीव चतुर्वेदी


"ग्रामीण भारत के स्कूलों की दशा और दिशा पर गौर करें । स्कूलों में "मिड डे मील" तो बच्चों को स्कूल में बुलाने का चुगा है । दरअसल शहर के साहबों को अपनी औलादों की सेवा के लिए नौकर ढालने हैं । ...गाँव के स्कूल बच्चों को मनरेगा का मजदूर ढालने के कारखाने हो चुके हैं । ...सामान शिक्षा का नारा आज भी मुंह बाए खड़ा है । दूर देहात गाँव के स्कूलों में पढ़ाई होती ही कब है ?...मां बाप बच्चों को पढने के लिए गंभीर नहीं हैं ...मास्टर प्रायः अनुपस्थित रहते हैं या डग्गेमारी करते हैं । इन पर नियंत्रण कौन करे ? प्रधान से ले कर बेसिक शिक्षा अधिकारी तक सभी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं ।अध्यापकों को कामचोरी की सुविधा के बदले सुविधा शुल्क देना है तो महिला अध्यापकों को आर्थिक ही नहीं दैहिक शुल्क भी चुकाने पड़ रहे हैं । आप किसी बेसिक शिक्षा अधिकारी यानी BSA को देखिये निश्चय ही घूसखोर होगा साक्षात सुअर जैसा व्यक्तित्व बन चुका है ...कर्म कुकर्म का भेद नहीं है ...खाद्य कुखाद्य का भेद नहीं है ...अधिकारों के दुरूपयोग की गर्जना है पर चरित्र की वर्जना नहीं है ...महिला अध्यापकों को अगर पढाना नहीं है ...पढ़ाने के लिए स्कूल जाना नहीं है तो हरामखोरी के बदले इन छोटे बड़े मझोले अधिकारियों के "हरम" में शामिल होना होता है ।घूसखोर अध्यापिकाखोर अधिकारी और हरामखोर मास्टर के बीच एक दुरभिसंधि है...सुविधा के बदले दैहिक सहमति देती अध्यापिकाएं ...कामचोरी के बदले घूस देते अध्यापक ...स्कूल की जर्जर इमारत में बाजीफे के पैसों से दारू पीते ग्राम प्रधान और सामान चरित्र वाले अध्यापक कैसा राष्ट्र निर्माण करेंगे ? ...इन ग्रामीण स्कूलों की इमारतें हैं जैसे शिक्षा विभाग के अधिकारियों के चरित्र की इबारतें ...ग्रामीण स्कूलों की इमारत उतनी ही जर्जर और घटिया हैं कि जितना शिक्षा विभाग के प्रायः अधिकारियों का चरित्र . ( निश्चित रूप से शिक्षा विभाग में भी कुछ ईमानदार और कुछ आंशिक भ्रष्ट अधिकारी होंगे ,-- वह अपवाद हैं . मैं उस अपवाद पर प्रतिवाद नहीं कर रहा )....आज ग्राणीण भारत के स्कूल मनरेगा के मजदूर ढालने के कारखाने हो चुके हैं ।"---- राजीव चतुर्वेदी


"सावधान !! यह शिक्षा प्रणाली हमारे बच्चों का बचपना और युवाओं की तरुणाई छीन रही है और पूरी की पूरी पीढी को कुंठित बना रही है. जिनको हम मास्टर / शिक्षक कहते हैं उनके बारे में भ्रम यदि हो तो दूर कर लें. जो मेडीकल एंट्रेंस की परिक्षा में फेल हो जाता है वह जीव विज्ञान का मास्टर बनता है, जो इन्जीनियरिंग की एंट्रेंस परिक्षा में फेल हो जाता है वह फिजिक्स या गणित का मास्टर बनता है. हिन्दी का मास्टर हिन्दी का बड़ा कवि या साहित्यकार नहीं हुआ और अंगरेजी का मास्टर अंगरेजी का बड़ा लेखक नहीं हुआ. अमेरिका अर्थशास्त्र के 62 मास्टरों /प्रोफेसरों को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरष्कार मिला तो उसकी अर्थ व्यवस्था गर्त में चली गयी. पूरी दुनिया में राजनीति शास्त्र का कोई मास्टर सीनेट या संसद या विधान सभा का सदस्य होना तो दूर सभासद भी नहीं हो सका है.मतलब साफ़ है या तो वह जिस विषय को पढता-पढाता आ रहा है वह राजनीति नहीं है या वह राजनीति समझता ही नहीं है और अपने ही विषय में अयोग्य है. जो मास्टर विधि (Ll.B.) पढ़ाते हैं वह अछे वकील नहीं हैं. कुछ इस तरह के मास्टरों के दिए अंकों से हम किसी की योग्यता भला कैसे नाप सकते हैं ? ...डॉक्टरेट यानी Ph.D. का सच अब लोगबाग जान चले हैं ...इसका रास्ता शोधार्थी के लिए गाईड की चाकरी से अधिक कुछ भी नहीं ...छोटी नियत के गाईड की टुच्ची लुच्ची आकांक्षाएं और आख़िरी दिन 25-30 हजार रुपये की दान दक्षिणा ...जो बेचारी लडकीयाँ शोध करती हैं वह अपने गाइड के किन देहिक /दैविक /भौतिक ताप को हरने को मजबूर की जाती हैं यह सार्जनिक सच सत्यापन का मोहताज नहीं. "वो क्या बताएंगे राह हमको, जिन्हें खुद अपना पता नहीं है" . इस तरह के शिक्षक ...इस तरह की शिक्षा प्रणाली हमारी पीढियां नष्ट कर रही है." ---राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, June 2, 2015

वैदेही ...प्यार में देह के स्तर तक ही भटकते अटकते लोग क्या समझेंगे ?

"वैदेही ...प्यार में देह के स्तर तक ही भटकते अटकते लोग क्या समझेंगे ? ... फिर समझ तो राम भी नहीं सके थे ... रावण थोड़ा-थोड़ा समझा था ... कृष्ण भी समझे नहीं थे, राधा ने समझा दिया था और रुक्मणी रुक गयी थी देह की दहलीज पर ... समझे तो बुद्ध भी नहीं थे, यशोधरा ने समझा तो था पर विदेह की यात्रा नहीं शुरू की ...मीरा ने वैदेहीकरण की क्रान्ति कर दी थी ...पहली बार प्यार में कोई स्त्री वैदेही नहीं हो रही थी बल्कि उसने पुरुष को विदेह कर दिया था ... मीरा के सामने कृष्ण विदेह थे ... साकार से सरोकार और निराकार से निर्लिप्त किन्तु अनंत अतृप्त ... वैदेही होने के लिए देह होना जरूरी है, ...निर्देही नहीं सदेही ...और देह के प्रति सरोकार, तिरष्कार, पुरुष्कार, अधिकार को प्रतीत ही नहीं व्यतीत करके अतीत करना ..."बीतराग" ...अनुराग से बीतराग तक की यात्रा का पूर्णविराम है वैदेही ...वैदेही माने भौतिकता से भावनात्मकता की यात्रा का पूरा होना ...रजनीश ने इस वैदेही की यात्रा को शुरू होने के पहले ही रोका टोका और भावनाओं का झंडा लहराते भटक गए ...लाओत्से ने कल्पना तो की पर राग से आग तक आ कर बीतराग के बाहर ही रुक गए...सुकरात ,नीत्से ,फ्रायड देह पर ही अटके भटके रहे ...पातांजलि ने प्रेम की ज्योमिती में स्थूल शरीर और आत्मा के योग -वियोग तक आ गए पर विदेह की व्याख्या करते इसके पहले उनका समय समाप्त हो गया था ...यों तो पार्वती के प्रतिष्ठान में शंकर भी रुके थे ... मोहम्मद व्यसन और वासना में उलझे थे, उपासना की ओर एक कदम भी नहीं चले ...मरियम बढ़ती तो है पर ठिठक जाती है ... सीता, राधा और मीरा वैदेही की यात्रा पूरी करती हैं ...यशोधरा रास्ता बताती तो है पर फिर चुप हो जाती है ...सीता देह से वैदेही होने की यात्रा पूरी करती है ... राधा कभी खुद वैदेही होती है कभी कृष्ण को विदेह करती है ...और मीरा कृष्ण को कालजयी विदेह रूप में देखती है स्वीकार करती है ...मीरा कृष्ण की समकालीन नहीं है वह कृष्ण से कुछ नहीं चाहती न स्नेह , न सुविधा , न वैभव , न देह , न वासना केवल उपासना ...उसे राजा कृष्ण नहीं चाहिए, उसे महाभारत का प्रणेता विजेता कृष्ण नहीं चाहिए, उसे जननायक कृष्ण नहीं चाहिए, उसे अधिनायक कृष्ण नहीं चाहिए ...मीरा को किसी भी प्रकार की भौतिकता नहीं चाहिए .मीरा को शत प्रतिशत भौतिकता से परहेज है . मीरा को चाहिए शत प्रतिशत भावना का रिश्ता . वह भी मीरा की भावना . मीरा को कृष्ण से कुछ भी नहीं चाहिए ...न भौतिकता और न भावना , न देह ,न स्नेह , न वासना ...मीरा के प्रेम में देना ही देना है पाना कुछ भी नहीं . मीरा के प्यार की परिधि में न राजनीती है, न अर्थशास्त्र न समाज शास्त्र . मीरा के प्यार में न अभिलाषा है न अतिक्रमण . मीरा प्यार में न अशिष्ट होती है न विशिष्ठ होती है ...मीरा का प्यार विशुद्ध प्यार है कोई व्यापार नहीं . जो लोग प्यार देह के स्तर पर करते हैं मीरा को नहीं समझ पायेंगे ... वह लोग भौतिक हैं ...दहेज़ ,गहने , वैभव , देह सभी कुछ भौतिक है इसमें भावना कहाँ ? प्यार कहाँ ? वासना भरपूर है पर परस्पर उपासना कहाँ ? देह के मामले में Give & Take के रिश्ते हैं ...तुझसे मुझे और मुझसे तुझे क्या मिला ? --- बस इसके रिश्ते हैं और मीरा व्यापार नहीं जानती उसे किसी से कुछ नहीं चाहिए ...कृष्ण से भी नहीं ...कृष्ण अपना वैभव , राजपाठ , ऐश्वर्य , भाग्वाद्ता , धन दौलत , ख्याति , कृपा ,प्यार, देह सब अपने पास रख लें ...कृष्ण पर मीरा को देने को कुछ नहीं है और मीरा पर देने को बहुत कुछ है विशुद्ध, बिना किसी योग क्षेम के शर्त रहित शुद्ध प्यार ...मीरा दे रही है , कृष्ण ले रहा है .--- याद रहे देने वाला सदैव बड़ा और लेने वाला सदैव छोटा होता है ....कृष्ण प्यार ले रहे हैं इस लिए इस प्रसंग में मीरा से छोटे हैं और मीरा दे रही है इस लिए इस प्रसंग में कृष्ण से बड़ी है . उपभोक्ता को कृतग्य होना ही होगा ...उपभोक्ता को ऋणी होना ही होगा कृष्ण मीरा के प्यार के उपभोक्ता है उपभोक्ता छोटा होता है और मीरा "प्यार" की उत्पादक है . मीरा को जानते ही समझ में आ जाएगा कि "प्यार " भौतिक नहीं विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति है . यह तुम्हारे हीरे के नेकलेस , यह हार , यह अंगूठी , यह कार , यह उपहार सब बेकार यह प्यार की मरीचिका है . भौतिक है और प्यार भौतिक हो ही नहीं सकता ...प्यार केवल देना है ...देना है ...और देना है ...पाना कुछ भी नहीं . --- यह यात्रा है ...आदि और अंत की सीमाओं से परे ...और हम यात्री हैं ...शरीर से आत्मा ...आत्मा से परमात्मा की यात्रा ... साकार से निराकार की यात्रा ... सदेह से विदेह की यात्रा ...देह संदेह और विदेह ... वैदेही को प्रणाम !!" ----- राजीव चतुर्वेदी